साठ साल पहले ओलापुर-गंगौर की चोहद्दी बड़ी दिलचस्प हुआ करती थी। बल खाती बूढ़ी गंडक के किनारे गांव लम्बा बसा हुआ था। गांव के बीच से एक कच्ची सड़क गुजरती थी। एक सिरे पर शराब की कलारी और ताड़ीखाना था। शाम को गाछी गुलजार हो जाती थी। जब पहली दफा मैला आंचल पढ़ा तो लगा, इस्स, रेणु कहीं मेरे गांव के बारे में ही तो नहीं लिख रहे रहे हैं:
तीन आने लबनी ताड़ी,
रोक साला मोटरगाड़ी।
गांव की दूसरी सीमा पर एक खास जाति के कुछ ऐसे घर आबाद थे जहां लोग रात के अंधेरे में ही जाया करते थे। उन्ही घरों में से एक का एक बालक मिडिल स्कूल में हमारा सहपाठी था। उसकी मदद से सारे बच्चों ने क्लास में ही कोकशास्त्र का पढ़ लिया था, वह भी सचित्र।
शाम को लालटेन की रोशनी में वह खजाना खोला जाता था. वहीं मेरी मुलाकात पाइप पीने वाले सेक्सटन ब्लैक से लेकर ऐय्यारों के ऐय्यार भूतनाथ से हुईं राहुल सांकृत्यायन से लेकर प्रेमचंद और यशपाल से लेकर कृशन चंदर एमए जैसे लोगों से वहीं परिचय हुआ। गांधी, नेहरु तो थे ही, टॉलस्टॉय और टैगोर भी वहां मौजूद थे।
ओलापुर-गंगौर आसपास के गांवों से काफी बड़ा था। सड़क और बिजली भले न हो, पर हाई स्कूल था, जहां सारे पडोसी गांवों के बच्चे पढने आते थे। स्कूल के खपरैल भले बारिश में टपकती हो, पर उसकी प्रयोगशाला में बीकर भी था, रसायन भी और उनके साथ एक्सपेरिमेंट सिखाने वाले मास्साब भी।
ऐसा था हमारा गंगौर।
दो
पर समय के साथ तेली ने तेल पेरना छोड़ दिया। कुम्हार से घैला मांगते हैं तो वह बाज़ार से खरीदकर पहुंचा देता है। कंसार में आग जलाने के लिए जरना ही नहीं बचा। बढई के बाल-बच्चे हमारी तरह ही खटने के लिए दिल्ली-बम्बई निकल गए।
बिहार से निकले हुए मुझे भी एक युग बीत गया है। लगभग आधी सदी से परदेश की खाक छान रहा हूँ। इन दिनों भोपाल में हूं। कहा जाता है कि इस शहर को राजा भोज (ईसा पूर्व १०१०-१०५५ ई.) ने बसाया था।
राजा भोज का नाम पहली दफा तब सुना था, जब अक्षर ज्ञान भी नहीं हुआ था। अंगुरी जितने बड़े अंगुरिया नामक बच्चे का विस्मयकारी किस्सा सुनने की चाहत अक्सर हमें घूरे के पास खींच लाती थी। घूरा ताप रहे बड़े-बूढ़े हमारा ज्ञान वर्धन करने के लिए घुट्टी रटाते थे। इस घुट्टी के दो प्रमुख पाठ थे। एक, राजा भोज हमारे पूर्वज थे। दो, हमारा हाल-मुकाम भले गंगौर हो, पर हमारा घर था, धारा नगरी।
धारा नगरी का संगीतमय नाम सुनकर एक ज़माने में लगता था कि वह चंद्रकांता संतति के चुनार किले सी कोई रोमांचक जगह होगी। बाद में पता चला कि वह मध्य प्रदेश के धार शहर का प्राचीन नाम था। धारा नगरी भोज साम्राज्य की राजधानी था।
पता नहीं किस भीषण युद्ध या प्राकृतिक आपदा के चलते परमारों के उस कुनबे ने कब धारा नगरी से पलायन किया। पर इतना पक्का था कि इंद्र सिंह और चन्द्र सिंह नामक दो भाइयों ने १५०० किलोमीटर का सफ़र तय कर बूढ़ी गंडक के किनारे गंगौर गांव में अपना लाव-लश्कर डाला था।
जगह बड़ी सोच-समझ कर चुनी गयी थी। थोड़ी दूर आगे ही बूढी गंडक का मुहाना था, जहाँ वह गंगा में मिलती थी। अर्थात इफरात पानी। बचपन की मुझे याद है। बहियार में सात-आठ हाथ खोदने पर पानी निकल आता था। हमारे अवधेश भाई साब ही नहीं, दूसरे कई जानकारों का भी ख्याल है कि गंगौर वास्तव में गणगौर का अपभ्रंश है। इंद्र सिंह और चन्द्र सिंह जिस धारा नगरी से आये गणगौर वहां का सबसे बड़ा सांस्कृतिक-सामाजिक त्यौहार है।
सिंह बंधु धार से आ तो गए, पर धार से कभी अलग नहीं हो पाए। धार में रहने वाले उनके वंश-पुरोहित १५०० किलोमीटर का सफ़र तय कर हर साल गंगौर आया करते थे. मक्सद होता था, फसल में अपना हिस्सा वसूलना। यह सिलसिला पिछली सदी के उत्तरार्द्ध तक चलता रहा।
सैकड़ों वर्षों तक साल-दर-साल चलने वाली इस दुष्कर यात्रा के बारे में सोचकर अभी भी देह में फुरहरी छूटती है। अब तो रेलगाड़ी है। जब नहीं थी, तब कैसे आते होंगे? १५०० किलोमीटर तय करने में कितने दिन लगते होंगे? और रास्ते में ठग और पिंडारी और लुटेरे और डाकू!
वह क्या सेतु था जिसने इस रिश्ते को इतने अरसे तक टिकाये रखा? क्या केवल कुछ मन अनाज या चांदी के चंद सिक्के? मार्खेज कहते हैं, घर वहीं है जहां आपके पुरखों की हड्डियां गड़ी हैं।
तीन
हाथी चढ़ी आवे भारतमाता
डोली में बैठल सुराज
घोडा चढ़ी आये बीर जवाहिर
पैदल गन्धी महराज
गीत में वर्णित बाकी लोगों के बारे में मैय्यो के मुंह से सुना। मैय्यो, मेरी दादी। झुर्रियों भरा चेहरा, पोपला मुंह और झुकी हुई कमर। अनपढ़ मैय्यो को जमाहिर लाल से लेकर गन्धी महतमा और बिनो बाबाजी तक के नाम याद थे। उन्हें पक्का यकीन था कि विनोबाभावे कोई साधु या बाबाजी थे। वे उन्हें बिनो बाबाजी कहती थी।
मैय्यो ने विनोबा को एक दफा ही देखा था। पर उनके स्मृति पटल पर लम्बी, श्वेत दाढ़ी वाले वे चमत्कारी महापुरुष हमेशा के लिए अंकित हो चुके थे। उन्हें पक्का यकीन था कि वे वैसे ही बाबाजी थी जैसे उनके घर के पास की ठाकुरवाड़ी में आया करते थे — देह में भभूत मले, धूनी रमाकर अपना चिमटा गाड़ने वाले साधु।
बीमार शिशु को बाबा के पास ले जाया गया। बाबा ने उसके सिर पर हाथ रखा। जो तेरी क! बोखार छूमंतर!! एकदम से बिलबिला गया!!!बाबा के चमत्कार से अभिभूत मैय्यो एक तथ्य भूल जाती थीं। इसके पहले विनोबा जी मेरी मां को ठोस इलाज बता चुके थे, “लीला, जौ कूट कर उसके दानों को पीसकर बार्ली बना लो। अच्छी तरह उबाल कर बच्चे को पिला दिया करो।”
मैय्यो पढ़ी-लिखी नहीं थीं। वे जिन्दगी भर चम्मच को करछुल कहती रहीं। पर सारे अनपढ़ लोगों की तरह वे सीधे बात के मर्म तक पहुंच जाती थीं। विनोबा उनके लिए बिनो बाबाजी थे, तो गांधी जी गन्धी महतमा।
इस तरह गंगौर में साधु-महतमा के आशीर्वाद से सुराज आया।
चार
जो जोतेगा सो बोयेगा,
जो बोयेगा सो काटेगा।
कटने के बाद फसल दौनी के लिए खलिहान पहुंचती थी। दौनी होते वक्त बैलों के मुंह पर जाबी पहना दिया जाता था, ताकि वे अनाज में मुंह नहीं मार सकें। पर फिर भी वे थोड़ा-बहुत खा ही लेते थे। साबुत अनाज के ये दाने बैलों को पचते नहीं थे और गोबर के साथ निकल आते थे। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि गरीब तबके की औरतें उस गोबर को इकठ्ठा करती थीं और फिर उसमें से अनाज के दाने बिनकर निकालती थीं। उन दानों को पानी में धोकरऔर सुखाकर खाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था!
गांव में कोई भी भोज होता था तो एक खास जाति के लोग अपनी लम्बी-लम्बी लाठियां लेकर शाम से ही इकठ्ठा होना चालू हो जाते थे। अगर किसी मातबर गिरहथ के घर पूरी-जलेबी वाला भोज हो तो उनका पूरा कुनबा ही आ जाता था। उनका काम था भोज ख़त्म होने के बाद मोहल्ले के कुत्तों को भगाना ताकि वे उनके पहले पत्तल तक नहीं पहुंच जाये। वे जूठी पत्तलें इकठ्ठी करते थे, जिसका बचा हुआ खाना उनके काम आता था, और उनसे बचा हुआ खाना उनके सुअरों के काम।
हमारी खेतों में पहले भरपूर अल्हुआ और सुथनी होता था। अब तो यह हेल्थ-डाइट हो गया है। पर तब यह विशुद्ध रूप से गरीबों का भोजन हुआ करता था। लोगों के खाने से जो बच जाता था वह माल-जाल को कुट्टी काटकर खिला दिया जाता था। उन दिनों अल्हुआ और सुथनी उधारी पर खरीदने के लिए हमारे दरवाजे पर लोगों की ऐसी भीड़ उमड़ती थी कि हमें उसका कोटा बांधना पड़ता था।
मैं नहाने के लिए गंडक जाता था तो अक्सर अपने कपड़े भी धो लेता था। साबुन लगाने के बाद कपड़ों से निकला फेन नदी के पानी में गिरता था। क्या अब कोई यकीन कर पायेगा कि कुछ औरतें उस फेन को अंजुली में भरकर इकठ्ठा करती थीं और फिर उससे अपने कपड़े साफ़ करती थीं!
पांच
एनएसओ के आंकडें जो भी कहें, एक्टिविस्ट कितना भी गला फाड़ें, मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि गंगौर में पहले के मुकाबले ज्यादा खुशहाली आई है। लोग बेहतर खा रहे हैं और अच्छा पहन रहे हैं। तब के मुकाबले पढाई-लिखाई और इलाज के भी बेहतर साधन उपलब्ध हैं। खासकर लड़कियों की तो दुनिया ही बदल गयी है।
लाल कारड पर मुफ्त में इतना अनाज मिल जाता है कि बीपीएल केटेगरी वालों को गोबर से अनाज निकलने की जरूरत नहीं पड़ती। अल्हुआ-सुथनी अब स्वाद के लिए ख़रीदा जाता है। सीधा में मजदूर भी मोटा अनाज स्वीकार नहीं करते। भोज-भात के बाद हमें अपनी पत्तलें खुद इकठ्ठी करनी पड़ती हैं; बचा हुआ खाना या तो कुत्तों के काम आता है या कौओं के। खाद्य सुरक्षा का दावा केवल नारा नहीं है। दुकानें शैम्पू-साबुन और गमकौवा तेल के पाउच से लदी दिखती हैं।
इस समृद्धि की वजह सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के अलावा मनीआर्डर इकोनॉमी भी है।
पहले गांव के इक्का-दुक्का लोग ही कलकत्ता जाकर ठेला खींचते थे या शहरों में रिक्शा चलाते थे। अब ज्यादातर लोग गांव से बाहर निकलकर पूरे हिंदुस्तान में फ़ैल गए हैं। वे केवल दिल्ली-लुधियाना के कारखानों में ही काम नहीं करते, कोई गुजरात में रहता है तो कोई मद्रास में।
लोग अब बाहर खटने जाते हैं, तो बाल-बच्चों को भी साथ ले जाते हैं। घरों में या तो बूढ़े बच गए हैं या वैसे लोग जो बाहर नहीं जा सकते। कई घरों में ताले लटके नजर आते हैं। गिरहथ लोगों की शिकायत है कि उन्हें खेत के काम के लिए लोग नहीं मिलते हैं। कोरे स्टाम्प पेपर पर हरवाही लिखाकर बंधुआ मजदूर रखने का जमाना कब का गुजर गया।
गांव से शहर की ओर जाने का एक दिलचस्प हिसाब। मेरे बचपन में जब हम गांव में भोज करते थे तो आठ मन चावल रींधा जाता था। पचास साल बाद जब आबादी दोगुनी से ज्यादा बढ़ चुकी है, हमारा काम चार मन चावल में चल जाता है। जाहिर है आधे से ज्यादा लोग गांव के बाहर रहते हैं।
सामूहिक भोज के समय पहले पूरा गांव इकठ्ठा होकर खाना बनाया करता था। औरतें आंगन में तरकारी बनाया करती थीं और मर्द दरवाजे पर भात और दाल रींधा करते थे। अब शहर से हलवाई आते हैं। सामूहिकता गायब हो गयी है, और उसके साथ ही वह विशिष्ट जीवन शैली भी खो गयी है जिसकी वजह से गांव कभी गांव हुआ करता था।
(चार दशक से पत्रकारिता जगत में सक्रिय। इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक भास्कर में संपादक रहे। समसामयिक विषयों के साथ-साथ देश के सामाजिक ताने-बाने पर लगातार लिखते रहे हैं।)