मेरे गाँव का नाम कटसारी है जो सुलतानपुर जिले के कादीपुर तहसील में है।
गांव के दक्षिण गोमती नदी बहती है, पश्चिम ग्राम राई बीगो, उत्तर दिशा में पदारथपुर और राघवपुर गाँव हैं जबकि पूरब में ग्रामसभा बरवारी पुर है। मेरे परिवार के ज़्यादातर लोग कलकत्ता रहते हैं। गर्मियों की छुट्टियों या शादी-ब्याह में उनका एक साथ आना होता था। तब गाँव वाले घर के बड़े से आँगन में दो क़तारों में चारपाइयाँ लगतीं। यह व्यवस्था बच्चों और महिलाओं के लिए थी, मर्द द्वार पर सोते। अम्माँ-चाची जब भी गाँव आती थीं तो रात भर क़िस्सा-कहनी चलता रहता था। इनमें सारंगा-सदाब्रिज का क़िस्सा सबसे अधिक दोहराया जाता। गाँव का हमारा कच्चा मकान काफ़ी बड़ा है। है क्या,था। बहुत पुराना नहीं है। क़रीब सौ बरस का होगा। अब तो उसके कुछ ध्वंसावशेष ही बचे हैं। देखरेख के अभाव में वह धीरे-धीरे ध्वस्त हो गया। हमें संरक्षण करना नहीं आता।अच्छी चीज़ों को सहेजना नहीं आता; इतिहास को तो क़तई नहीं। हमारे इतिहासबोध पर किसी पश्चिमी इतिहासकार ने लिखा है, जो अकसर याद रहता है कि “भारतीयों में इतिहास के प्रति गहरी उदासीनता है। उनसे इतिहास पूछिए तो वे कहानियाँ सुनाने लगते हैं।” इस बात में काफ़ी दम लगता है। ठीक-ठीक तो याद नहीं; संभवतया वह किवदंती होगी। हम ऐतिहासिक महत्त्व की चीज़ों को, ‘एंटीक’ को बचाने में कोई रुचि नहीं रखते, ख़ासकर गाँवों में तो यह चलन बिल्कुल ना के बराबर है।
हमारे घर के पूरब में एक कोट था। उसके चारों ओर छोटे-बड़े टीले और लघु घाटीनुमा ऊँची-नीची ज़मीन। चारों ओर सरपत, झरबेरी और बबूल के जहाज़ी पेड़। यह कोट गाँव का सबसे ऊँचा स्थान था। टीला तो अब भी है। देखते-देखते उसके बचे हिस्से विनष्ट हो गये। बहुत दिनों तक उसके भग्नावशेष के लक्षण दिखते रहे। अब तो उसे भी जोतकर खेत बना दिया गया है। इतिहास की एक और परत दफन हो गई। उससे जुड़ी कई कहानियाँ आँखों के आगे तैरने लगती हैं। नहीं जानता कि उससे जुड़ा कोई प्रसंग गाँव में अब किसी को याद भी होगा या किसी की उसमें कोई रुचि होगी। कहा जाता है कि अपने स्वर्णकाल में इस कोट के शीर्ष पर जलता दीया बहुत दूर तक झलकता था।
उस कोट पर अकसर कोई न कोई साधु आकर रहने लगता, पर कुछ दिनों में ग़ायब हो जाता। एक बार कुछ लोगों ने इसकी खुदाई करने की कोशिशें की पर कथित तौर पर बहुत-सी आपदायें आने लगीं तो खुदाई का वह काम बन्द कर दिया गया। इस कोट के मध्य में एक कुआँ था, जिसे बचपन में हमने भी देखा था। कहा जाता है कि उसमें अपार सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को हथियाने के कई प्रयास हुए। पुख़्ता तौर पर तो नहीं कह सकता, पर यह इलाक़ा कभी भर राजवंश के प्रभाव में रहा। पूरब से अकसर आये चोरों ने इस कुएँ से धन ले जाने का प्रयास किये। इस खण्डहर के आसपास से एकाध बार एकाध सिक्के भी लोगों को मिले। कहते हैं कि जैसे ही यहाँ खुदाई चलती, तो लोगों को लगता कि कोटवा में आग सी लग गई है और जब सब आग बुझाने जाते तो कहीं कुछ नहीं। कुछ लोग तो यह बताते थे कि खुदाई के बाद पहले बड़ी संख्या में चींटियाँ निकलेंगी, फिर बिच्छू और उसके बाद साँप निकलेंगे। जब इन सब पर विजय मिल जायेगी तो कुएँ के ऊपर एक चाँदी की शहतीर मिलेगी और अन्त में इसे हटाने के बाद बड़ी मात्रा में धन मिलेगा। कहा जाता है कि ऐसा वहाँ कभी मिले एक ताम्रपत्र में लिखा मिलता है। पर इसे एक किंवदन्ति ही माना जा सकता है। उस कुएँ में साहियों ने अपना घर जरूर बना लिया है जिसे मारकर खाने वाले रात-बिरात यहाँ आते रहे हैं। इस टीले के आसपास टूटे हुए मिट्टी के वर्तनों की भरमार है।
हमारा पुश्तैनी मकान ग्यारह कमरों का था। इसे बखरी कहते हैं। गजभरी मोटी-मोटी माटी की दीवारें। भीतर के कमरों में लगभग छह फ़ुट की ऊँचाई पर लकड़ी की बल्लियाँ लगाकर दो-छत्ती बना था। उससे ऊपर पाँच-छह फ़ुट पर लकड़ी, बाँस और छाजन के ऊपर मिट्टी से बने और आग में तपे हुए थपुआ और नरिया से ढलवाँ ललछौंह छतें बनी थीं। मकान के चारों कोनों पर मिट्टी के ही कई तल वाले चार कलश बने हुए थे।क़रीने से कटे कार्निस यानी आतिशदान और नक़्काशी किये हुए लम्बे-लम्बे लकड़ी के टोंटे इन इमारतों की जान हुआ करते थे।इस तरह बने कच्चे मकानों को पटौंधा भी कहा जाता है। उत्तर भारतीय ग्राम्य जीवन में यही वास्तुशैली प्रमुख रही है, जो अब अपने आखिरी दौर में है। अब तो पटौंधा यानी कच्चे मकान बन ही नहीं रहे हैं और पुराने ढहाये जा रहे हैं। इन मकानों में पीतल के फुल्ले लगे ऊँचे सहन दरवाजे बड़ी भव्यता लिए होते हैं। ऐसी ना जानें कितनी माटी की इमारतें संरक्षण के अभाव और उपेक्षा के चलते तिल-तिलकर विनष्ट हो रही हैं। अपने यहाँ के कच्चे मकान वातानुकूलित जैसे होते हैं। इनका अनुकूलन गजब का। गर्मी में ठण्डे और जाड़े में गुनगुने से। हमारे इलाक़े में एक लोक कहावत यानी मसल चलती है: “नारि, पटौधाँ, कूपजल औ बरगद की छांव/ गर्मी मा शीतल करे, जाड़े मा गरमांव।” (कच्चा मकान, कच्चे कुएँ का पानी, बरगद की छांव और स्त्री की संगति गरमी में शीतलता देते हैं और ठण्ड में ऊष्मा।)
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अपनी यूरोप की यात्राओं में जो वहाँ देखा और उसे सोचता हूँ तो ईर्ष्या से भर जाता हूँ। 12वीं-13वीं सदी के भवन सजीले और मनोरम ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई बस अभी-अभी इन्हें रंग-रोगन कर गया हो। उनकी नक्काशियाँ, उनमें लगे कील-काँटे, मानवमुखी तथा अन्यान्य आककृतियों की धातु से बनी फुल्लियाँ, ऊँचाई पर बने वातायनों को खोलने के लिए लगी डोरियाँ इन इमारतों के अप्रतिम सौन्दर्य को बताते हैं।यहाँ लोग सैकड़ों बरसों से इसे ज्यों-का-त्यों बचाये-बनाये हुए हैं।
वैसे तो देश में टेलीविजन की औपचारिक शुरुआत 15 सितम्बर 1959 में हो गई थी, परन्तु गाँवों के लिये यह सपना ही रहा। सन् 75 में ‘टेलीविजन इंडिया’ ‘दूरदर्शन’ के परिवर्तित रूप में हमारे सामने आया, परन्तु अस्सी के दशक से यह गाँवों में पहुँचना शुरू हुआ। सन् 1982 में दिल्ली में होने वाले एशियाई खेलों के चलते श्वेत-श्याम के रूप में दूरदर्शन का कायाकल्प होना शुरू हुआ। सन् छियासी में रामायण और महाभारत जैसे मेगा धारावाहिकों ने तो क्रान्ति ही ला दिया, लेकिन तब भी टेलीविजन सब के लिए दूर की कौड़ी था और हमारे मनोरंजन में इसकी दख़लंदाज़ी बहुत कम थी। यह दूरदर्शन के विस्तार का काल था।इन दोनों धारावाहिकों ने लोगों का मिज़ाज ही बदल दिया। रेडियो अब भी पहली पसंद तो था, पर उसके गिरावट के दिन शुरू होने लगे थे। क्रिकेट की कमेंट्री से इसकी सांसें तेज जरूर थीं, पर चाक्षुष तकनीकि से यह कुछ पिछड़ने-सा लगा। हाँ, एक बात जल्द ही दिखने लगी कि टीवी हमारे समाजिक और पारिवारिक जीवन पर कुछ प्रतिकूल असर भी डालने लगा और टीवी का डिब्बा धीरे-धीरे ‘बुद्धू बॉक्स’ भी कहलाने लगा। तब टीवी पर रात में विडियो पिक्चर देखने का चलन शुरू हुआ। गाँवों में लोग सामूहिक रूप से इसका आनन्द लेते थे। यही समय था जब पारम्परिक मनोरंजन का प्रस्थान हो रहा था और हमारे जीवन में तकनीकी मनोरंजन दाखिल होने लगा। ख़ास तौर पर नौटंकी और लोकनृत्य जैसी विधाएँ विदा होने लगीं थीं। तब हम ख़ाली पड़े पलिहर खेतों में खेल लिया करते थे। लड़कियाँ छाँटी, लँगड़ी और बनाव-सजाव से अपना मनोरंजन कर लेती थीं। गर्मियों की छुट्टियों में नयी-नवेली बहू वाले घर कुँआरियों के अड्डे हुआ करते थे। उनका यहाँ सीखना और खुलकर हास-परिहास होता था। यह वह समय था जब हम कहीं भी, किसी भी मौक़े के बहाने गा लेते। ऋतुओं ने हमें बहुतेरे गीत दिये।
गाँव ने हमें जीवन को रंगने लायक़ बहुत सारे रंग दिये। कबड्डी, गुल्ली-डंडा,पटरी-सुटुर्र और झाबर का खेल, सब ग़ायब। कुढ़ी और पहलवानी गुम। दीदियाँ और बुआएँ सरपत से चेंफादार बल्ला (सरपत से पतली-पतली लम्बी पत्तियाँ) बनातीं, उसे रंग कर पंखा-बेना बनातीं, मौनी, कोहा और कई तरह के बर्तननुमा चीज़ें बनते। हर मौसम के खेल और गवनई। बरसात की रातें कभी बड़ी रस भरी हो जातीं: नीम की डार पर पड़ा झूला और आधी रात तक दूर तक गूँजते कजरी के गीत- “हरे रामा…” की मोहक तान दूर तक तरंगित होता तो लोग अंदाज़ा लगाते कि फलाँ के घर झलुआ पड़ा है। फ़लाँ की दुलहिनी यह गा रही होगी? कभी दूर से रात में पचरा सुनाई देता, चैता गूँजता। सब ग़ायब। हमारी कुछ आजियाँ,बड़ी अम्माँएँ, चाचियाँ और कुछ भौजाइयाँ याद आती हैं जिनके परिहास से डर कर लोग अपना रास्ता बदल दिया करते थे। उनकी रसीली गालियाँ झेलना किसी मर्द के बूते से बाहर हो जाता। शादी-ब्याह में ‘बड़े घूँघट वाली’ की रसभरी मनोरम गालियाँ जैसे भरी दुपहरिया में बलून में केवड़े का जल भरकर कोई फेंके: “फलाने की बहनिया क दुइ-दुइ भतार; झमकोइया मोरे लाल…!” जैसी ना जाने कितनी श्लीलता के पार जाकर गायी जाने वाले लोकगीत-गारियाँ अब गुम होते जा रहे हैं। ना जाने कितने हाज़िर जवाबी और सरस क़िस्से बिखरे हैं हमारे लोकजीवन में। यहाँ अश्लीलता में परिहास भी खूब चलता था।
लोकजीवन में सन्नद्ध जीवन-दर्शन का एक वाकया याद आता है। लखनऊ से गाँव जाता हूँ तो कुछ लोगों के घर जाकर मुलाक़ात जरूर करना चाहता हूँ। ऐसे ही कुछ साल पहले हमारे गाँव के दूसरे पुरवे में एक सज्जन के यहाँ गया। उनकी किशोरवय में बेटी मर गई थी। शोक-सन्तप्त थे। जीवन और मृत्यु के दर्शन पर बौद्धिक चर्चा चलने लगी।आम तौर पर ऐसे अवसरों पर हम ऐसे ही वितरागी-से हो जाते हैं।यही फरवरी का महीना रहा होगा। इतने में उनके यहाँ काम कर रहा एक मजदूर भी आ गया। वह हम सब की बातें बड़े ग़ौर से सुनता रहा; सुनता रहा।अचानक वह बोल पड़ा, “बाबू साहब ! एक बात पूछूँ ?” उस व्यक्ति ने नीचे पड़े मटर के ताज़े हरे-हरे पौधों की ओर इशारा करते हुए पूछा, “इस डाँठ (मटर का पौधा) को काहे उखाड़ लाये,यह अभी बहुत हरियर है?”
इस पर उन सज्जन ने छूटते ही कहा, “थी तो बहुत कच्ची, पर जरूरत थी तो उखड़वा मँगाये।”
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“बस, यही ईश्वर भी करता है। उसे जिसकी ज़रूरत होती है, बुला लेता है।” उसने तपाक् से जीवन-जगत का बेहद सरल दर्शन हमारे सामने रख दिया। हम सब उसे देखते ही रह गये। उसके दर्शन का इतना सरल रूप। लोकदर्शन कितना सरल और गम्भीर।
गाँवों में जोगी-फ़क़ीर आते तो मेला लग जाता। कभी गाजी मियाँ की दरगाह से तो कभी राजा भरथरी वाले जोगी। एक जोगी तो ज़्यादातर दो ही भजन टेरता, “भँवरवा के तोरा संग जाईं….!” और “हंस जब-जब उड़ा तब अकेला उड़ा…” उसका भरा-भरा और गहराई में डूबा हुआ स्वर। सारंगी बजाकर मस्त कर देता। जीवन और जगत के बीच की यह उड़ान सिहरन पैदा करती।ज्ञान के चाहे जितने सोपान हम चढ़ लिए हों लेकिन सांसारिक निस्सारिता को समझते-समझते अब तक न समझ पाये।लाल पगड़ी में पुरानी-सी सरंगी वाला वह जोगी, अभी भी वह मेरे मानस में अपना राग छेड़ देता है तो बेसुध होकर उसे सुनने लगता हूँ। अब वह कभी नहीं मिलेगा।कभी भी नहीं…..! परन्तु वह गाता रहता है-“हंस जब-जब उड़ा, तब अकेला उड़ा।”
इतना सरस हमारा समाज परन्तु मुहब्बत को कभी बर्दाश्त नहीं किया। प्यार तो जानलेवा ही रहा हर तरह से। इश्क़ करना ‘तलवार की धार पे धावनो है….’ ही हमेशा रहा है। इश्क़ करना जुर्म था।
कितने प्यार के क़िस्से दो क़दम भी ना चल सके और कितने कुछ चल कर दफ़्न हो गये। कुछ दुस्साहसी जरूर थे जो ‘कुटाई’ की परवाह किये बिना कुछ दूर चले। प्रेमियों को देने के लिए तब होता भी क्या था ! थोड़ा बड़े हुए तो किताबों की अगला-बदली या फिर बचपन में इमली-करौंदा और झरबेरियाँ जैसी कुछ खाने-पीने की चीज़ें। बहुत हुआ तो डरते-डरते गुलाब के फूल; वह इस उम्मीद में कि ‘सूखे गुलाब किताबों में मिलेंगे’। प्रेमीजन एक महीन-सी उम्मीद में हौले से फूल थमाकर रास्ता बदल लेते थे कि कहीं से कोई देख ना ले। प्रेम भी जिस लोकजीवन से शुरू और उसी लोक में छोड़कर कर चले जाना होता था। प्रेमिकाएँ रोते-रम्हते अपनी ससुराल और प्रेमी चाही-अनचाही के साथ जीवनपथ पर अग्रसर। कुछ ही भाग्यशाली होंगे जिन्हें उनका प्यार दोबारा हासिल हुआ होगा। यह सब बहुतेरी यादें या स्मृतियाँ हैं जो उसी ओर खींचती हैं, जहाँ से चले थे। वह ध्वनियाँ, वह छवियाँ अभी भी लुभाती हैं; ख़ासकर उनको जो वह अपना लोक छोड़ आये हैं।
ग्रामीण लोकजीवन की कुछ और झलकियां …पात्र
कविता प्रेम और और ‘परताब चाचा’
कविता सुनने की जो धुँधली-सी रंगत मन में कहीं थी, इन आयोजनों से और गाढ़ी हुई। यह वृत्ति हमारा एक साथी शचीन्द्र और ‘परताब चाचा’ की वजह से भी मज़बूत हुई।
‘परताब’ यानि रामप्रताप सिंह हमारे चाचा लगते थे। सचिन्दर यानी शचीन्द्र इन्हीं चाचा का छोटा बेटा है। मेरा गाँव का साथी। चाचा को पढ़ने का बहुत शौक़ था। पुराने ज़माने के वे इंटरमीडिएट थे और सरकारी मुलाजिम। वे अकसर पढ़ते ही रहते। चाचा के पास तमाम विषयों की चकित करने वाली जानकारियाँ थीं। अपने समय के बेहद प्रगतिशील, पर गाँव के अधिकतर लोगों से दुश्मनी की हद तक सदा असहमति रही उनकी। पुराने ढाँचे के गाँव में लोगों को उनकी बातें कुतर्क लगतीं। ऐसा लगता है कि लगभग सभी गाँवों में ऐसे चरित्र जरूर होते हैं। परताब सिंह हम सबके लिए ‘चाचा’ ही थे, यहाँ तक कि अपने भी बच्चों के लिए भी।’चाचा’ कुछ साल पहले हम सबको छोड़ विदा हो लिए। मेरे लिए उनकी याद हमेशा भावुक क्षण में तब्दील हो जाती है। मेरे विवाह के तुरन्त बाद चाचा ने मुझे वैवाहिक-जीवन के गुह्यसूत्र दिये, जिसे हर किसी अभिभावक को देना चाहिए। स्त्री के ऋतुचक्र और गर्भाधान के बारे में पहली वैज्ञानिक जानकारी इन्हीं चाचा से मिली।
मैंने कभी भी उनको किसी तरह का पूजापाठ करते नहीं देखा, पर आसपास कहीं धार्मिक प्रवचन होता तो उसमें हमको ले जरूर जाते। यह क्रम मेरे गाँव में रहते सन् छियासी तक अनवरत रहा।
एक बात और, चाचा हमारे गाँव को एक विद्यालय दे चुके हैं फिर भी ‘परताब चाचा’ हमारे गाँव के ‘बदनाम’ नागरिक थे। इसका एक प्रमाण है। उनकी एक चाची थीं, हम सबकी आजी लगती थीं। आजी विदुषी थी। हमारे यहाँ दादी को आजी कहते हैं। आजी कवित्त रचती थीं। उनका एक कवित्त है,”लम्बा खर जगदम्बा खायेन, बचा-खुचा गनपति सिंह पायेन। परताब क चाचा साँपे क पोआ, बना खेल परतबवै खोला।।”
(जगदम्बा सिंह हमारे गाँव के प्रधान रहे हैं। गनपति सिंह जगदम्बा के चाचा थे और वह भी प्रधान रह चुके थे। ’ परताब क चाचा’ माने आजी के पति और पोआ का आशय साँप के बच्चे से है।)
नसबंदी और गाँव
आपातकाल के बाद इंदिरा गाँधी के प्रति बड़ा जनरोष था, इसमें नसबंदी के प्रकोप की भूमिका भी थी। नसबंदी के अपने नफ़े-नुक़सान हैं। पर नसबंदी को लेकर उस समय देश में बेहद आतंक का वातावरण था। हमारा गाँव भला इससे अछूता कैसे रहता। इसके पीछे संजय गाँधी को बताया जाता है। यह आतंक इतना था कि सरकारी जीप देखते ही भगदड़ मच जाती थी। कई कुँवारे, नव ब्याहतों तक की नसबंदी कर दी गई थी। मुझे बख़ूबी याद आ रहा है कि मेरे गाँव के मग्धू गडेरिया को चिकित्सा विभाग वाले उठा ले गये। मग्घू की शादी हो गयी थी पर अभी गौना नहीं आया था। पूरे गाँव में भूकम्प-सा आ गया। मग्घू का पूरा परिवार जार-जार रो रहा रहा था। तब उस समय के हमारे ग्राम प्रधान जगदम्बा सिंह किसी तरह से छुड़ा कर लाये।
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जीवन तो लोकजीवन में ही है। पर अब तो वहाँ भी सब कुछ बदल गया है। दूध-मट्ठा की जगह कोल्ड्र ड्रिंक्स पहुँच गए हैं। कूपजल ग़ायब, क्योंकि कूप ही ग़ायब। यहाँ हम किताबों में विकास की नयी इबारत लिख रहे हैं, वहाँ पक्की छतों वाली इमारतें लहलहा रही हैं। वह पुराने गाँव ही रसातल में गड़ गये हैं कहीं, जहाँ ना लोक बचा है और ना ही वह जीवन। हम अपनी पुरानी यादों के सहारे गुम हुए गाँव को भले ज़िन्दा करते रहें; पर गाँव मरता जा रहा है।
जब गाँव मरता है तो शहर होते हैं और जब शहर मरता है तो सभ्यताएँ मर जाती हैं। ऐसे ही एक दिन गाँव मरकर शहर हो जायेंगे और जब शहर मर जायेंगे तो……!
(मूलत: पत्रकार और साहित्य से दोस्ताना व्यवहार। भारत विद्या से जुड़े विषयों पर वक्तव्य देने के लिए तीन बार जर्मनी आमंत्रित। अपने देश में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर वक्तव्य और आलेख प्रकाशित।)