
भारत गांवों का देश है। गांवों की खुशहाली के बिना देश की खुशहाली की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जयपुर से मात्र ढ़ाई घंटे की दूरी पर सीकर और झुंझनू के बीच नवलगढ़ तहसील है। यह पूरा क्षेत्र शेखावटी कहलाता है। यहां 120 ऐसे गांव और शहर हैं जहां से देश के अधिकांश उद्योगपति निकले हैं और देश के अलग-अलग हिस्सों में व्यापार कर रहे हैं। औद्यौगिक घरानों के पास पैसा है और इस पैसे की जरूरत गांव को है। गांव को निवेश की जरूरत है, बड़े बदलाव की जरूरत है।

आज हर गांव में, हर घर में बिजली पहुंचाने की बात कही जा रही है। लेकिन सवाल है कि इसे किया कैसे जाए। सरकार ने कौशल विकास मंत्रालय बना दिया। विचार के स्तर पर यह बहुत अच्छा है लेकिन जमीन पर कुछ काम नहीं दिखता। केवल नाम बदलने का काम चल रहा है। पूरे कौशल विकास का ढ़ांचा सही नहीं है। कौशल का विकास तो तब माना जाता जब हम खेती-किसानी से जुडे़ कौशल, परंपरागत ग्रामीण शिल्प को बढ़ावा देते हुए उन्हें आधुनिक तकनीक से जोड़ते। गांव में कई तरह के परंपरागत शिल्प हैं। लोहार, बढ़ई, बुनकर, धुनिया, दर्जी, कुम्हार, मूर्तिकार, बांस से कई तरह के सामान तैयार करने वाले कलाकार आदि अपने शिल्प की बदौलत ही ग्रामीण अर्थव्यस्था में खास पहचान रखते थे। लेकिन हम कौशल विकास की बात तो करते हैं लेकिन इन परंपरागत शिल्प को कैसे बचाया जाए, इसपर ध्यान नहीं देते। इन पेशों से जुड़े लोग कैसे नयी तकनीक और बाजार से जुड़कर परंपरागत पहचान भी बनाए रखें और नयी विद्या भी सीखें ताकि वर्तमान बाजार के अनुरूप उन्हें काम मिले, इस दिशा में प्रयास होता नहीं दिखता। इसके विपरीत बेरोजगारी का मार झेल रहे इन परिवारों के युवा शहरों में पलायन कर जाते हैं और पुरखों से चली आ रही गांव को समृद्ध करने वाली खेती से जुड़ी व्यवस्थाएं और ग्रामीण-शिल्प खत्म होते जा रहे हैं।
राज्यसभा के सदस्य के रूप में संसद का कार्यकाल खत्म होने के बाद मैंने इलाके के गांवों में आम लोगों के जीवन को बेहतर करने के लिए अपने पिताजी के नाम पर एम.आर.मोरारका जीडीसी रूरल रिसर्च फांउडेशन बनाया। इस फाउंडेशन के जरिए पिछले 25 साल से न सिर्फ नवलगढ़ तहसील के 123 गांव में बल्कि कई अन्य तहसीलों में ग्रामीण विकास से जुड़े तमाम विषयों पर काम चल रहे हैं। इस दौरान हमने शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला स्वयं सहायता समूह, सौर्य उर्जा के साथ ही इलाके में किसानों के साथ मिलकर जैविक खेती को बढावा देने के लिए काफी काम किया है।
आज जैविक कृषि करने वाले लगभग 50 हजार किसान हमारे साथ जुड़े हुए हैं। हम न सिर्फ उन्हें जैविक खेती करने को प्रोत्साहित करते हैं, अपितु फसल की बुवाई-कटाई से लेकर उनका उत्पाद बाजार तक पहुंचे और लाभप्रद मूल्य मिले, हर स्तर पर सहयोग करते हैं। अमूमन यह धारणा बना दी गई है कि जैविक कृषि से होने वाला पैदावार भले ही स्वास्थ्य के लिहाज से ठीक हो, लेकिन लाभप्रद व मुनाफादेह नहीं है क्योंकि किसान की पैदावार कम होती है। हमने इस धारणा को तोड़ा है।
खेती के साथ पशुपालन खुद-बखुद जुड़ा हुआ है। हमने इस दिशा में नवलगढ़ में काफी प्रयोग किया है। नवलगढ़ में एक परंपरागत गोशाला है जिसका मैं अध्यक्ष हूं। यह वैज्ञानिक स्तर पर स्थापित तथ्य है कि देशी नस्ल की गाय ए-टू किस्म की दूध देती है जो स्वास्थकर होता है। दूध का उत्पादन बढ़े, इसके साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हम पंरपरागत नस्ल की गाय पालें। इसलिए नवलगढ़ में जैविक दूध के काम को आगे बढ़ाने की दिशा में प्रयास किया जा रहा है। कई किसान इस प्रोजेक्ट से जुड़े हैं। अभी 1700 किसानों से 7000 हजार लीटर दूध संग्रहित किया जा रहा है। कई जगह दुग्ध संग्रहण केंद्र बनाए गए हैं। हमने 10 लाख लीटर तक दूध संग्रहण करने का लक्ष्य रखा है। वे अपनी गायों को जैविक चारा और दाना खिलाते हैं। इनसे जैविक दूध प्राप्त होता है।
हम गांव में ग्रामीणों के साथ मिलकर ऐसे कार्यक्रम चलाते हैं जिससे गांव का विकास आगे भी सतत रूप से चलता रह सके। जैविक कृषि भी सतत विकास करती है। आज सरकार जो भी योजनाएं चला रही है, वह गांव को मजबूत करने के लिए नहीं हैं, बल्कि शहर को सस्ता मजदूर मिल सके, इस उदेश्य से चलाए जा रहे हैं। इस तरह की व्यवस्था बनाई जा रही है कि गांव में कुछ बचे ही नहीं और लोग मजबूरी में रोजी रोटी की तलाश में शहरों में पलायन करने को मजबूर हों। गांव तभी सुद्ृढ़ होंगे जब लोगों को गांव में ही काम मिले। जीविका का आधार तैयार हो। कृषि के साथ मध्यम, लघु व कुटीर उद्योग बढ़ें ताकि युवाओं को काम की तलाश में बाहर न जाना पड़े।
इस क्र्म में एक उदाहरण शेखावटी इलाके में मिला एक दिव्यांग व्यक्ति है। उससे जब मेरी मुलाकात हुई, तब उसे काम की जरूरत थी जिससे वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। मैंने शुरूआती तौर पर उसे 20 सोलर लालटेन दिया। इस सोलर लालटेनों को उसने किराए पर लगाना शुरू कर दिया। उसे प्रति लालटेन प्रतिदिन 10 रूपए किराया मिलता है। इस तरह वह व्यक्ति जो स्वयं को बोझ मानने लगा था, एसेट हो गया। आज वह अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई, घर-परिवार का खर्च वहन करने में सक्षम है।
मैं व्यक्तिगत तौर पर तो नवलगढ़ में साल में दो बार ही कुछ दिनों के लिए जा पाता हूं, लेकिन मोरारका फांउडेशन ग्रामीणों से जुड़कर उनकी बेहतरी के लिए लगातार काम कर रहा है। मेरी भूमिका पथ-प्रर्दशक की है। नवलगढ़ के विभिन्न गांवों के लोग मुझसे जो भी अपेक्षा रखते हैं, उसे पूरी करने की कोशिश करता हूं ताकि गांव समृद्ध हो और देश की तस्वीर बदले। जैसा कि मैंने पहले कहा कि देश के व्यावसायिक घरानों को गांव के प्रति अपनी जवाबदेही समझते हुए वहां के विकास के लिए काम करना चाहिए। लेकिन यह तभी संभव है जब आपका दिल गांव के लिए धड़के।
जब आप यह समझेंगे कि आपको गांव के लिए कुछ करना चाहिए तो आप निश्चित रूप से कर पाएंगे। थोड़ी मेहनत तो लगती है। मैं इसलिए कर पाता हूं क्योंकि मैंने अपने बड़ों को यह करते हुए देखा है। चंद्रशेखर जी के साथ गांव-गांव घूमते हुए यह समझ पाया कि गांव की तरक्की के बिना देश के विकास की तस्वीर धुंधली ही रहेगी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम गांधीजी के आत्मनिर्भर ग्राम की परिकल्पना को जमीन पर उतारने के लिए अपने हिस्से का कर्तव्य पूरा करें।
गांधी जी का सपना था कि गांव स्वावलंबी हो। अब तकनीक आगे बढ़ गई है। लेकिन तकनीक का इस्तेमाल सही तरीके से नहीं हो रहा। पहले हर आदमी के पास कुंआ होता था, अब वह पाईप का पानी पीता है। उसे आराम तो मिला है, पर भूगर्भ जलस्तर दिनों दिन नीचे जा रहा है। इसपर सोचने की जरूरत है कि आधुनिक तकनीकों का प्रयोग हम कैसे करें।
पूर्व सांसद राज्यसभा एवं उद्योगपति।