मनीश अग्रहरि
दुनिया भर में जल की समस्या है फलत: जल एक गंभीर विषय है। लेकिन सोशल मीडिया के इस दौर मेंं किताब कौन पढ़ना चाहता है बावजूद इसके कोरोना महामारी के दौर में लोगों में पाठकों में किताबों के प्रति आकर्षण देखा जा रहा है। आप भी यदि इस लॉक डाउन पीरियड में गंभीर विषय पर दिलचस्प और जानकारीप्रद किताब पढ़ने में रुचि रखते हैं तो आप हाल ही में आई जल संचेतना पढ़ सकते है। यह किताब न केवल जल के वैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक, सिरे को एक साथ मिलाती है, बल्कि किस्सो, कहानियों से पैबस्त विज्ञान, साहित्य, धर्म और दर्शन पर अद्भुत ढंग से प्रकाश डालती है।
जल संचेतना सर्जन पीठ, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गई है, जिसके लेखक रणविजय निषाद है। रणविजय पेशे से शिक्षक, जुनून से सामाजिक कार्यकर्ता, और शब्द रचना धर्मिता के ध्यानी लेखक है। कुल बीस अध्याय में वर्णित यह किताब विद्यार्थियों एवं आम जन हेतु गांव से ग्लोब तक की जल बोध ,शोध की गंगा में डुबकी लगवाते हुए, वर्तमान और भविष्य के संकट से उबरने के उपाय सुझाती है। लेखक की शैली एक ओर जहां विमर्श-नवीसी की है, तो वही दूसरी ओर जल विज्ञान की नीरसता को तोड़ने हेतु कविता और कहानियों के सेतु का सहारा भी है।
जल एवं जल स्रोत नाम से अध्याय एक में वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मानव विकास रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि प्रति व्यक्ति 5 गैलन स्वच्छ पानी मुहैया होना चाहिए , साथ ही प्रत्येक देश की सरकार को स्वच्छ जल हेतु अपनी जीडीपी का 1 फीसद खर्च करना चाहिए। अध्याय 3 में गंगा स्वच्छता के निमित्त उसके अविरलता, निर्मलता हेतु आम जनमानस किस प्रकार योगदान दे सकता है, जानकारी देते हुये, सरकार का भारी—भरकम बजट पानी, पानी हो जाने पर सवाल भी उठाया गया है। अध्याय 9 में रैन वाटर हार्वेस्टिंग समेत जल संरक्षण एवं संचय की अनेको विधियों की सविस्तार चर्चा की गई है। क्रमश: अध्याय 12,13,14 में भूमिगत जल में चिंताजनक रूप से बढ़ते फ्लोराइड, आर्सेनिक और पारा की वजह से होने वाली घातक बीमारियों से लोगो को वाकिफ कराने का पुरजोर प्रयास किया गया है।
किताब को और अधिक रोचक बनाते हुए अध्याय 15 एक कहानी के रूप में “हरे भरे वन, देते जल और पवन” से वृक्षारोपण, सामाजिक वानिकी द्वारा जल के महत्व को रेखांकिंत किया गया है।’तालाबो के पंक में पंकज निकलते थे’ से हम सहज ही समझ सकते है कि लेखक ने अपने लेखन द्वारां सजा कहानी में किस तरह से अपने शब्द रचना धर्मिता का परिचय देते हुए, विद्यार्थियों को मातृ भाषा से बहुत कुछ सीखने की गुंजाइश रखी है। अध्याय 2 के अंत में लिखते है ” न तो हवा की है गलती, न दोष है नाविक का, जो हम बूंद-बूंद जल को तड़पेंगे, यह आचरण हमारा होगा” ।
इस तरह किताब में कविता के रूप में अभिव्यक्ति की ह्नदयस्पर्शी विधा विद्यमान है। अगर किसी कविता की पंक्ति को पढ़कर हम भारी संवेदना से सिहर उठते है, तो यह उस कविता की उपलब्धि है, और सम्भवतः सच्ची कविता की यही पहचान भी है । जल संचेतना के लेखक रणविजय निशाद एैसे ही मिशनरी वाटर मैन है, जो पूंजीवाद के घोर अनैतिक दौर में जल संरक्षण जैसे हाशिए पर पड़े मुद्दे को प्राथमिकता पर रखते हुए, जुबान देना चाहते है। लब्बोलुआब यह है कि इस किताब को एक बार जरूर पढा जाना चाहिए।