प्रियदर्शन शर्मा,वरिष्ठ पत्रकार
पटना: बेगूसराय से पटना के दीघा घाट पर बालू खनन का काम करने जा रहे मजदूरों का पिकप-वैन 12 जुलाई को मोकामा में पलट जाता है और तीन मजदूरों की घटना स्थल पर मौत हो जाती है। अपने साथियों की लाशों को सड़क पर पड़ा देखकर भी मजबूर मजदूर अफसोस के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे। दर्दनाक हादसे के बाद भी रोते बिलखते शेष बचे करीब एक दर्जन मजदूर अंततः फिर से दीघा घाट की ओर सफर शुरू करते हैं। मौत के मंजर को आंखों से देखने के बाद भी उनके कदम वापस गांव की ओर नहीं लौटते। और, लौटे भी भला क्यों?
जब गांव लौटकर भी भूखे मरने की मजबूरी है तब क्यों न शहर ही चला जाए, वहां कम से कम काम और मजदूरी तो मिलने की उम्मीद है। चार पैसे घर भी भेज ही दूंगा तो गांव में भी चूल्हा जलेगा। मौत को अपनी आंखों से देखने के बाद भी दीघा घाट जाने के लिए कदम बढ़ा रहा सुलोचन (सभी नाम बदले हुए हैं) रुआंसे होकर हमसे ही सवाल पूछता है। और, सच कहिये तो सुलोचन के सवाल का न तो मेरे पास जवाब है और ना ही सरकारों के पास।
आत्मनिर्भर भारत की हकीकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत सरकार ने भले कोरोना महामारी के संक्रमण को रोकने के मकसद से देश में सीमित संख्या में ट्रेनों की आवाजाही कर रखी है लेकिन बिहार में स्थिति इससे उलट है। पिछले तीन महीने में लाखों मजदूर भले देश के अलग अलग शहरों से बिहार लौट आए लेकिन अब उनके सामने संकट रोजगार का है। मजबूरी एक बार फिर वे उन्हीं शहरों की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं जहां से वे मजबूरी में पैदल ही घर लौट आए थे। बिहार से वापस लौटने वाले मजदूरों की संख्या अब हर दिन लाखों में पहुंच रही है। 8 और 9 जुलाई को मजदूरों की भारी भीड़ को देखते हुए पटना से देश के विभिन्न शहरों के लिए करीब तीन दर्जन विशेष ट्रेनें चलाई गई। एक दिन में करीब 35 हजार लोग इन ट्रेनों से गये जिसमें सर्वाधिक 15 हजार यात्री दिल्ली जाने वाले थे।
कोरोना के कारण मजबूरी में मजदूरों ने भले गांवों का रुख किया। लेकिन अब नकद आमदनी बंद होने से भविष्य की चिता सबको सता रही है। सरकार की ओर से चावल, गेहूं और एक किलो दाल मिलना ही जरूरतों का अंत नहीं हो सकता है। इसलिए मुंगेर जिले के ही मसूदन कहते हैं जब हाथ में नकदी नहीं होगा तब नमक -तेल कहां से आएगा। आत्मनिर्भर भारत जैसी किसी योजना से मसूदन को तत्काल रोजगार मिलता भी नहीं दिखता। हां, मसूदन को डीआरसीसी मुंगेर से किसी का फोन जरूर आया था। उससे पूछा गया था कि वह सूरत में क्या काम करता था। फोन पर उसे कहा गया था कि बिहार सरकार उसके जैसे प्रवासी मजदूरों को रोजगार मुहैया कराने की योजना पर काम कर रही है। हालांकि मसूदन को फोन आए भी 15 दिन हो चुका है। इसलिए मसूदन भी दयाल की बातों को दोहराते हुए कहता है। राजा को रोटी की चिंता नहीं होती, हम गरीब आदमी हैं 6 मई को आए थे, 2 जुलाई को सरकारी विभाग से रोजगार देने का फोन आया था। आज 16 जुलाई है अब तक रोजगार नहीं मिला है। बताइये, हम भूखे पेट रोजगार मिलने का इंतजार करें या ‘आत्मनिर्भर’ होने के लिए लुधियाने की स्वेटर कम्पनी में जाएं!