केले के पत्ते पर भोजन..पर्यावरण की सुरक्षा, किसानों को आमद भी

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niraj_nनीरज प्रताप सिंह
भागलपुर: गांव की अपनी परंपरा होती है। अपने रिवाज होते हैं। लेकिन गांव बदल रहे हैं। रिवाज बदल रहा है। परंपराएं पीछे छूट रही हैं। खान-पान के तौर—तरीके आधुनिकता के मोह में त्यागे जा रहे हैं। लेकिन गंभीरता से सोचे तो इन तौर-तरीकों को सहेजकर न सिर्फ हम परंपराओं से जुड़े रह सकते हैं, अपितु पर्यावरण की समस्या से भी निपटने के साथ ही बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा कर सकते हैं।
इन्हीं में से एक परंपरा है गांवो में केले के पत्ते पर भोजन ग्रहण करने की परंपरा।  आपने भी देखा होगा कि जब आप छोटे रहे होंगे तो गाँव में या उसके आसपास कही भी शादी—ब्याह या किसी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान में जब भी कोई भोज होता था तो उस समय ये थर्मोकॉल वाला प्लेट का चलन था ही नहीं,जहाँ भी कोई पार्टी या भोज हो पंगत में नीचे लाइन से पलथी मार के बैठा जाता था और केले के पत्ते में या सखुआ के पत्ते में खाना बड़े प्यार से खिलाया जाता था। खाना परोसने वाले भी अपने ही होते थे ,आग्रह कर कर के खिलाया जाता था और लीजिये और लीजिये। भोज खत्म होने के बाद फेंके गए वो जूठे पत्तल समस्या नहीं बनती थी ,कुछ दिनों बाद वो सड़ गल के मिट्टी में मिल जाती थी ।

kela 2लेकिन धीरे धीरे वक्त बदला भोज में इन पत्तों की जगह थर्मोकॉल से बने प्लेट ने लेना शुरू किया,और अब तो ये 95 प्रतिशत समारोह में इसका ही इस्तेमाल होने लगा है । वैसे तो इसका इस्तेमाल अच्छा लगता है,देखने में मनमोहक और थाल में भोजन सहेजने में आसान। लेकिन असली समस्या तो तब शुरू होती है जब समारोह खत्म होने के बाद कि इन जूठे प्लेटों का क्या करें ,ये तो न सड़ती है न हीं गलती है ,आग लगाओ तो वायु प्रदूषण ,इस तरह से कूड़े का ढेर बढ़ते जा रहा है ,इस समस्या का कोई निदान ही नहीं नजर आ रहा है। शहर तो शहर अब गांव भी कूड़े के ढ़ेर में तब्दील होते जा रहे हैं। और यह ढ़ेर हमारी मिट्टी को प्रदूषित कर रहा है।
लेकिन जब आप दक्षिण भारत जाएंगे तो आज भी यह परंपरा कमोबेश बनी हुई है। दक्षिण भारत की अपनी यात्रा के दौरान पाया कि ये परंपरा अभी भी जारी है।  खाने को एक रेस्टोरेंट में गया तो बचपन याद आ गया । क्योंकि सामने केले का पत्ता था जिसमे वेटर खाना परोस रहा था,अच्छा लगा ये देखकर,साथ में भोजन ग्रहण कर रहे स्थानीय एक मित्र ने बताया कि इधर के लोग खाने के लिये केले के पत्ते का ही इस्तेमाल करते हैं। अगर स्टील या कोई और भी बर्तन का इस्तेमाल होगा तो उसके नीचे छोटा सा भी केले के पत्ते को जरूर रखेंगे। उधर के अधिकांश रेस्टोरेंट में आपको केले के पत्ते में ही खाने का प्रचलन है। यह पूछे जाने पर इतनी बड़ी मात्रा में इन पत्तों को लाया कहाँ से जाता है ? जबाब था कि दूर दूर से किसानों के यहाँ से आता है ,जैसे किसानों के खेतों से सब्जी आता है उसी तरह ये पत्ते ,किसानों की आमदनी भी बढ़ती है,पर्यावरण के सुरक्षा के साथ साथ किसानों को रोजगार भी ।

kelaयह जानना काफी सुखद था कि केले के पत्ते से भी कमाई होती है।  जिस नौगछिया जिला भागलपुर का रहने वाला हूँ वो तो अब केले की खेती के कारण ही मशहूर है। लेकिन हमारे इलाके में दूसरे तो छोड़िये खुद जब किसानों के घर में कोई शादी या समारोह होता है तो बाजार से वही थर्मोकोल का प्लेट लाता है। सोचिये, अगर इन इलाकों में इन प्लेटों की जगह केले के पत्ते का इस्तेमाल होने लगेगा तो किसानों की आय कुछ तो बढ़ेगी ,मजदूरों को भी मजदूरी मिलेगी और पर्यावरण का संरक्षण भी हो सकेगा। अगर स्थानीय पर्यावरणविद या स्वयंसेवी संस्थाएं या पंचायती राज संस्थाएं जो कि गावों में काम करती हैं इस दिशा में सही तरह से लोगों को जागरूक करें तो धीरे धीरे से ही सही लोग फिर उसी पुराने दिन की ओर लौटेंगे। ऐसा भी नहीं है कि उत्तर भारत में यह परंपरा पूरी तरह से खत्म हो गयी है। यदि कॉलेज के दिनों को याद करूं तो अपने पढ़ाई के दौरान हमारे छात्रावास के पास ही एक मारवाड़ी परिवार रहता था,जिनके यहाँ रोज केले के पत्ते को एक मजदूर ला कर देता था क्योंकि उनके यहाँ थाली में नहीं केले के पत्ते पे ही भोजन किया जाता था। सिर्फ केले के पत्ते ही क्यों पीने के पानी के रूप में मिट्टी के चुक्कड़ का इस्तेमाल भी लगभग खत्म होता जा रहा है। पहले आयोजनों में आज की तरह प्लास्टिक के ग्लास उपलब्ध नहीं होते थे। लोग आयोजनों के पहले ही मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को पानी पीने के लिए चुक्कड़ जिसे कई इलाकों में रमकड़वा भी कहा जाता है का विशेष आॅर्डर देते थे। पानी पीने का चुक्कड़ हो या चाय की कपटी इनके जरिए  मिट्टी का बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के पास रोजगार का साधन विकसित होता था और उनकी रोजी रोटी बनी रहती थी। लेकिन ये परंपराएं धीरे—धीरे खत्म होती गयी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े हमारे कुम्हार भाईयों के सामने रोजगार का संकट हो गया। बदले मे जो प्लास्टिक हमने अपनाया वो न सिर्फ स्वास्थय के लिए हानीकारक है अपितु हमारे पर्यावरण को भी व्यापक नुकसान पहुंचा रहा है।

 

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