विद्यापति…घुरी आउ बिस्फी गाम

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प्रसून लतांत, वरिष्ठ पत्रकार
बिहार में अंतरराष्ट्रीय ख्याति का एक गांव है बिस्फी। इस गांव को लोग महाकवि विद्यापति की जन्मस्थली के रूप में जानते हैं। यह गाव विद्यापति को उनके प्रतिभा के कारण उनके आश्रय दाता राजा ने पुरस्कार के रूप में राजा ने दिया था। पैसे और अन्य कारणों से लोग संपत्ति हासिल करते हैं लेकिन बिस्फी का इजिहास कुछ अलग है। महाकवि ने इस गांव में ही अपनी महत्वपूर्ण कृतियों की रचना की। जिसके कारण वे साहित्य और इतिहास में पूरे सम्मान के साथ स्थापित हैं। विद्यापति ने संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषा में इस गांव का जिक्र किया है। यही वजह है कि विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और अनेक शोध संस्थानों के शोधार्थी इस गांव में आना नहीं भूलते। उन्हें इसी गांव में उनके आश्रयदाता राजा ने ‘अभिनव जयदेव’ की उपाधि से विभूषित किया था।

स्वर्णिम इतिहास से परिपूर्ण इस गांव का मौजूदा समया बहुत दुखदायी है। जिस कवि के लिए भगवान शंकर खुद उगना बनकर चाकरी करते थे और गंगा खुद उनके पास चलकर आ जाती थीं। आज उस विद्यापति के चहेते उनसे फिर से बिस्फी आने का कारूण गीत गाने पर विवस हो गए हैं, ‘‘ विद्यापति घुरी आउ एक बेर देखो बिस्फी ग्राम’’ जैसे गीत स्थानीय लोक गायक गांव में गा रहे हैं। हालांकि विद्यापति से संबंधित बिस्फी गांव का नाम सरकार के प्रशासकीय पुस्तिकाओं में दर्ज हैं, लेकिन विद्यापति के स्मृतियों का पूरी तरह से क्षरण हो रहा है। देश-विदेश में आए दिन बड़े पैमाने पर विद्यापति पर्व समारोह के आयोजन किये जाते हैं पर इन आयोजनों के चमक के बरक्स विद्यापति के जन्मस्थली का हाल देखें तो बहुत बुरा है। लोकगायक अपने गीतों में कहते हैं कि जब चुनाव आता है तब विद्यापति का यह गांव राजनीतिक चर्चा में आ जाता है और चुनाव समाप्त होते ही सबकुछ पहले जैसा हो जाता है। सारे वादों की असलियत खुल जाती है।


आजादी के बाद देश में विद्यापति के समकक्ष कई कवियों की स्मृति को संजोने के अनेक प्रयास हुए पर महाकवि विद्यापति की जन्म स्थली क्यों उपेक्षित की गई। आमलोगों के मन में विद्यापति के प्रति प्रेम-सम्मान में कोई कमी नहीं है, लेकिन उनके पास इतने संसाधन नहीं हैं वे कुछ कर सकें। सरकार के पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय को इस विरासत को बचाने के लिए पहल करना चाहिए लेकिन उनके ओर से कोई पहल नहीं की गई। बिहार सरकार ने अलबत्ता इस गांव को पर्यटन गांव घोषित कर दिया है पर इसके मद्देनजर कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किया गया है।

बिस्फी गांव जो संस्कृत और मैथिली भाषाओं में दर्जनों गंथों की रचना का गवाह रहा। लोकभाषा अवहट्ट यानी देसिल बयना का सूत्रपात हुआ। जहां विद्यापति ने श्रृंगार, भक्ति और प्रेम का राग अपनी कविताओं में गाया। आज यह गांव अंतरराष्ट्रीय ख्याति का गांव है। विद्यापति से अनुराग रखने वाले पर्यटक देश विदेश से आते रहते हैं। विद्यापति भारतीय साहित्य की श्रृंगार परंपरा के साथ-साथ भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। वे संस्कृत, अहवट्ट और मैथिली भाषा के प्रकांड पंडित थे। कर्मकांड हो या धर्मदर्शन हो या न्याय, सौंदर्यशास्त्र हो भक्ति रचना, विरह व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृत्रित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिंडदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के लिए जाने जाते हैं। वे देव सिंह, कीर्ति सिंह, शिव सिंह, पद्म सिंह, नर सिंह, धीर सिंह भैरव सिंह और चंद्र सिंह आदि राजाओं के सलाहकार थे और लखिमा देवी, विश्वास देवी और धीरमति देवी आदि रानियों के भी सलाहकार थे। एकतरफ विद्यापति मैथिल कोकिला के रूप में विख्यात है, साथ ही उन्हें कवि शेखर, कवि कंठाहार, खेलन कवि, राज पंडित और अभिनव जयदेव की उपाधियों से भी विभूषित किया हुए थे।

यदि बिस्फी के विन्यास और अवस्थिती की बात करें तो बिहार के मधुबनी जिले में स्थित इस गांव की आबादी लगभग 20 हजार है। इस गांव में प्रखंड कार्यालय है, जिसमें 58 गांव और 28 पंचायते हैं और यह क्षेत्र बिस्फी विधानसभा में आता है। गांव से विधानसभा क्षेत्र तक का नाम भी इसलिए है क्योंकि इस गांव से महाकवि विद्यापति का संबंध है। जिला मुख्यालय मधुबनी से 17 किलोमीटर दूरी पर स्थित इस गांव के आसपास विद्यापति से जुड़े हुए अनेक स्थल हैं, लेकिन आज के समय में इस गांव की जैसी उपेक्षा की गयी है वह हैरत अंग्रेज है। विद्यापति द्वारा विकसित मैथिली भाषा भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गई है और मधुबनी चित्रकला की प्रसिद्धि देश विदेश में है लेकिन उनके मुकाबले विद्यापति के गांव बिस्फी को एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता था। यह मिथिलावासियों और बिस्फी ग्राम वासियों के लिए एक सपने जैसा ही रह गया। पूरे देश में विद्यापति पर्व मनाने वाले आयोजक अगर एकजुट होकर ‘बिस्फी’ को उसके इतिहास और महत्व के अनुसार विकसित करने का प्रयास करेंगे तभी बिस्फी का उद्धार होगा। सांस्कृतिक महत्व के पुरोधाओं से संबंधित स्थलों का वास्तविक विकास जितना जनप्रयासों से हो सकता है उतना सरकार नहीं कर सकती। सरकार तभी करती है, तब लोग उन्हें एकजुट होकर जगाएं। फिलहाल इस तरह की कोशिश इस गांव में नहीं हो रही है।

बिस्फी गांव में सरकार की ओर से विद्यापति स्मारक भवन बनाया गया है लेकिन नियमित कोई कार्यक्रम नहीं होने की वजह से स्मारक भवन की देखभाल नहीं हो रही है। स्मारक भवन एक मामूली मकान की तरह बनाकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई। ऐसे स्थलों का निर्माण जिस सांस्कृतिक समझ-बूझ से किया जाना चाहिए था, नहीं हुआ। बिस्फी में विद्यापति का जन्म हुआ है, वहां उनकी एक प्रतिमा है और पूरा स्मारक भवन दीवारों से घिरा है। भवन में मात्र एक हॉल है, जिनमें विद्यापति से संबंधित कुछ भ्रांतियां हैं और खाली पड़े दर्जनों आलमारियां हैं, जिन्हें विद्यापति और उनसे संबंधित पुस्तकें रखने के लिए लायी गयी थी। इन आलमारियों में किसी एक में भी कोई किताब नहीं है। लोहे की आलमारियां जर्जर हो रही है। स्मारक भवन की दीवारों में भी दरारें आ गई हैं।

बिस्फी के विकास की िंचंता हर किसी को है पर कार्यरूप कोई नहीं दे सका है। सरकार की ओर से घोषित किया गया है कि बिस्फी में राज्य स्तरीय विद्यापति पर्व समारोह होगा और उसे पर्यटक क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाएगा। तालाब का सुदरीकरण और सुरंग का संरक्षण किया जाएगा। पर ये सब मात्र घोषणाएं हैं। कहा गया है कि विद्यापति जनकल्याण ट्रस्ट ने बिस्फी को ‘विद्यापति धाम’ बनाने का प्लान किया गया। पांच करोड़ रूपए की लागत से 131 फीट उंची प्रतिमा लगाने और बिस्फी के 210 किलोमीटर के दायरे में अन्य स्थलों का भी विकास किया जाएगा। साथ ही पटना से बिस्फी तक हेलिकॉप्टर सेवा शुरू करने की चर्चा भी की गई है। लेकिन इन तमाम घोषणाओं के बावजूद बिस्फी के लोग विद्यापति के गीत दुखहि जन्म भेल दुखहि गमाओल, सुख सपनों नहीं भेल गाने पर विवश हैं।

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